11.3.13

Labyrinth - It's Good to Get Lost

Good things come in small packages. It's really awesome to get lost in the maze created by labyrinth. This book is simply great. I'll say must read. This book brings something new and fresh. The simplicity of the stories is an additional feather on the crown. I really got chance to read some new genres for the first time.

Some stories need special mention here such as "I'll be back", "Mortified" and "The Day of Battle".

However, there are some which could have missed such as "Bagheera Log Huts" and "The Labyrinth".

Almost all of the stories have a pinch of thrill. The turns of events in the story creates a labyrinth and make you keep guessing for next. At the same time every event is nicely connected to the earlier and next ones. Overall the book is easy to read and it doesn't take much time to complete it. The best part is after completing one story, crave for more will be increased.

However there are instances where author seems to put an extra effort to make story ("Bagheera Log Huts") full of events, which could have been avoided. In fact those events create confusion in the story, make it over-stretched and inspire us to avoid it.

There are stories, which has very expected turns of events such as "Farming on Facebook", nonetheless OK to read.

It is worth to mention that “Sym – World” by Aditya Chincholi has potential to get converted to a full fledged independent novel.

Overall, a great effort and initiative by litizen.com and Rishabh Chaturvedi.

22.7.12

शहर और पहाड़




मैं शहर में रहता हूँ : मैं "अस्पताल" में पैदा हुआ.
मैं पहाड़ में रहता हूँ : मैं "घर" में  पैदा हुआ। 
मैं शहर में बीमार हुआ : पिताजी चिंता में हैं , कितना insurance कवर होगा।
मैं  पहाड़ में बीमार हुआ : पिताजी ज़मीन बेच के डॉक्टर के पास लाये हैं।
मैं शहर में रहता हूँ  : पिताजी दुपहिया बेच के car लेने वाले हैं।
मैं पहाड़ में रहता हूँ : पिताजी कहते हैं वो और गाय लेंगे।
मैं शहर में रहता हूँ  : पिताजी कहते हैं वो लोन ले के नया business  शुरू करेंगे।
मैं पहाड़ में रहता हूँ : पिताजी कहते हैं लोन किसानों को मार डालता है ।
मैं शहर में रहता हूँ  : सरकार  कहती है पिताजी का business अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है ।
मैं पहाड़ में रहता हूँ : सरकार कहती है पिताजी का शहर जाना एक समस्या  है जिसे पलायन कहते हैं।
मैं शहर में रहता हूँ  : कल की सुबह उम्मीद भरी है।


मैं पहाड़ में रहता हूँ : कल फिर सुबह खेत पे जाना है। कल फिर एक सँघर्ष  है।

22.6.12

तुम और शून्य





तुम्हे पता है!!! मैं अक्सर फुर्सत लेके तुम्हें सोचता हूँ।  तुम्हें  शायद  अजीब लगता हो और शायद अजीब है भी। पर इसका भी अपना ही एक मजा है। वो ही मजा जो एक व्हिस्की का ग्लास ले के आराम से पीने मैं है  शायद वोही नशा तुम्हारी याद का है। मैं तुम्हारी याद के साथ कोई समझौता नहीं चाहता। इसीलिए जब तुम याद आती हो तो आराम से एक एक याद, याद करता हूँ।

जब तुम्हें याद करने की कोशिश करता हूँ तो मन एक टक शून्य में खो जाता है। समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ। शायद कुछ भी याद नहीं या बहुत कुछ याद करने को है।

मुझे याद नहीं कैसे तुम्हारे बाल कभी कभी मेरे चेहरे को छू जाते थे, उनमे भीनी भीनी किसी शेम्पू की खुशबू थी जो थोड़े टाइम बाद मुझे अच्छे लगनी लगी। कौन सा शेम्पू था?
मुझे याद नहीं तुम्हारे साथ की गर्माहट मेरे वजूद को कैसे पूरा कर देती थी? मुझे तुम्हारी हथेलियों का आकार भी तो याद नहीं है। जाने कैसे वो मेरे हाथों मैं जगह बना लिया करती थी। जैसे पानी कैसे भी आकार ले लेता है, शायद वैसे ही  तुम्हारी हथेलियाँ मेरी हथेलियों मैं समां जाया करती होंगी इतना भुल्लाकड़ मैं कैसे हो गया मेरे लिए भी ये surprise है जाने कैसे मैं भूल गया की जब तुम रोती थी तो क्या तुम मुझे गले से लगा लेती थी!!! जो मेरी शर्ट में नमी है वो तुम्हारे आँसू तो नहीं!!! क्या तुम्हारे दिल की धड़कन,जो रोते हुए मेरे सीने से महसूस  होती थी, क्या अब भी मेरे सीने में ही कहीं दफ़न है!!!

कुछ भी तो याद नहीं मुझे। सब शून्य है। तुम कौन हो, में कौन हूँ!

--- Atul

Disclaimer : Its purely fiction. No relation to any person,place or thing.

5.5.12

अपने साथ जी के देखा है?




कभी अपने साथ जी के देखा है? ओशो कहते हैं दिन मैं ऐक बार अपने से बात कर लिया करो, नहीं तो तुम दुनिया मैं सबसे बेहतरीन इंसान से बात करने का मौका चूक जाओगे... मैंने कई बार अकेले बैठ के देखा है... कारण कुछ नहीं था... बस ऐसे ही... कभी खुद से चाह के या कभी दुनिया की आपाधापी मैं थोडा पीछे रह गया... सोचा थोडा सोचूं क्या किया जो नहीं करना था... थोडा अपने से बातें कर लूँ... शायद कोई जवाब मिल जाये... जैसे फिल्मों मैं दिखाते हैं... शीशे के आगे हीरो अपने आप को धुतकारता है "you are such a stupid ______!!!" वैसे ही... पर नहीं मैं नहीं सोच पाता... जैसे ही सोचता हूँ तो वो ही बातें याद आती है, नहीं बातें नहीं गलतियाँ याद आती हैं और फिर आगे कुछ सोचा नहीं जाता... बस फिर बैठ जाता हूँ चुपचाप... ऐसा नहीं है की कुछ सोच नहीं पता, बस भाग जाता हूँ अपने आप से... हमेशा की तरह... छुप जाता हूँ अपने ही इंसानी खोल के अन्दर ऐक आई डोंट केयर का attitude ले के...

फ़र्ज़ करो तुम और तुम दो अलग अलग इंसान ऐक ही कमरे मैं बैठे हो... क्या बात करोगे?
दोनों ऐक दुसरे के बारे मैं सब कुछ जानते हो... क्या करोगे? नज़रें चुराओगे या मिलाओगे? शायद चुप ही रहोगे... मेरी तरह...

7.4.12

There was a boy...



There was a boy who thought the world is large enough to have everyone in it.
Who thought bathing in rain cleanses your soul.
Who thought even devils cannot harm you if you are in your mother's embrace.
Who thought that why roads are curved when straight line is the shortest distance.
Who thought that the world is a place with full of love.
Who thought forest is the place where you can be lost.
Who thought two people are bound only because of love.
Who thought that smile means happiness.
Then he grew up.
And realized that in this world only those survive who fit in.
That people can die in rains.
That sometimes you have to embrace your mother to save her.
That even though the shortest distance is a straight line but sometimes you have to take a long route.
That world is not ONLY filled with love.
That sometimes you yourself want to get lost in a forest.
That people are bound not only because of love.
That smile does not always mean happiness.

There was a boy who was at the right place at the wrong time and wrong place at the right time.

O boy, there was a boy. :)

2.4.12

पहचान लिया श्रीनगर ने मुझे पर शायद मैं ही ना पहचान पाया...



मैं आया था वापस श्रीनगर और श्रीनगर तुमने मुझे पहचान ही लिया तुरंत... लगा लिया मुझे अपने गले से जैसे कई बरस मिलने के बाद कोई माँ अपने बेटे को सीने से लगा लेती है... पर मैं ही ना पहचान पाया तुम्हे... मेरा कसूर नहीं है इसमें, बरस भी तो काफी बीत गये हैं... ऐक बच्चा भी तो भूल जाता है अपने बचपन के चेहरे, मैं भी भूल गया तुझे... पर अब धीरे धीरे बूढी लकीरों के पीछे से तेरी आँखों की चमक याद आ रही है मुझे... कितना बदल दिया है तुमको शायद विकास के लिए या शायद बदलाव संसार का नियम है, उस नियम की खातिर... कैसे पहले जब भी मैं नदी की तरफ आता था स्कूल से भागकर तो लहरों की आवाज़ दूर से ही सुने देती थी जैसे बुला रही हो मुझे... मैं फिर से भाग कर आया पर इंतज़ार करता रहा आवाज़ का की अभी बुलाएगी ये नदी मुझे... फिर से मैं बचपन जियूँगा...  पर अब वो आवाज़ दब गयी है कहीं विकास के शोर मैं... घरों क बीच से होते हुए मैं वापस नदी से जा मिला... घंटों बैठा रहा, बातें करता रहा... मैंने सुनाई अपनी कहानी उसे, कभी खुशी के किस्से तो कभी दुःख के, कभी कुछ पाने की कहानी और कुछ खोने की... उसने भी कल-कल करते सारी बातें सुन ली, अपने पास बिठाया, मेरे पैरों पे ठंडा पानी लगाया... पुछा, अब आराम है? मैंने कुछ नहीं कहा बस देखता रहा शून्य मैं... उसने भी फिर कुछ नहीं कहा... बस मेरे पास बहती रही... चुप चाप... शायद वो भी रो रही होगी पर कल कल आवाज़ के सिवा और क्या कह सकती है वो... बस सहलाती रही पाऊँ को... और समेटती रही सारे दुःख सारी पीड़ा... घोल लिए मेरे सारे आंसू अपने पानी मैं, ताकि कोई और ना देख पाए... पर श्रीनगर मैं पहचान भले ही ना पाया हूँ, पर भूला नहीं तुझे... मैं आज भी लौट के आया हूँ और आता रहूँगा...



28.12.11

The Story Of My Assassins - A Great Piece of Art

If there would have censor board existed for books, this would have gotten 'A' rating for sure. Full of violence, action, thrill, sex; yet sensible, intriguing, not vulgar, unraveling our hypocrisy, ripping the truth apart of our society, showing the true dark face of our police, judiciary system, politics and politicians. Tarun (J. Tejpal), an astute writer has put all his experience, endurance of journalism behind, in writing this book. A true and fabulous work by the master of the art.

Typical north Indian set-up of the story, started from Delhi with the main character of the book. The story goes further on telling about the life of his assassins which is set-up in western part of Uttar Pradesh, to Haryana and Delhi itself. And finally it rest-in-peace in Delhi, where police captures them and they get into the jail. The books gives the good indication of the way people think, they way they live their life, the manner in the way they talk, and also how they behave in daily life in these parts of India. A description of a building, which tells the common habit of paan eating and throwing the red color waste in every corner of the buildings, "Everything was soiled, dirty, peeling. Every corner had a chiaroscuro of blood-red paan stains. Despite their grand scale, the corridors were dark and musty and poorly lit, with the illumination from the windows and ventilators truncated by dirt and furniture.". Further it goes ahead and talk about the most selling bestseller as "I had read in the hand-stapled, one-rupee novellas of Mastram Mastana that regularly ignited onanistic mayhem in the back benches. Every boy in the Hindi belt had dirtied his hands on Mastram.".

Most of the time language is crude, used in daily life. Many a times full of abuses, slangs, lingos popular in north-India and bad words of'course which are widely used but not in living rooms . Once in every two pages you'll come across such words. But in fact, this is the way a normal life goes on in northern part of India. "She looked at me, challenging, demanding. I said, 'Salli randi!'". It goes on with"All I told her was that the investors were friends of Jai, and I had christened them Chutiya-Nandan-Pandey.".

Books take us through the rough, dark, depressing, dingy, groaned life of the Police yet it also shows us the pitiable life police-men are living. It's start with showing a sub-inspector's life who is six month away from his retirement. He says showing limited power he has "We do what those above us in the department tell us to do. And they do what those above them tell them to do. And what they tell us is not always right. But it's not our job to ask why.". As we go on with the story we also meet a bunch of police-men who shows us that they are the god in their arena i.e. lock-up. No one can challenge them there, not even God. "Nothing surprised the boy because he was an aficionado of Bangkok's cinema. But it certainly hurt. Shakaal was the first in, without taking off his Michael Jordan shorts; then Kumla Jogi, cackling and talking all the while; and finally the third man, who first brutally used his mouth. Later, he kneeled the boy on the edge of the table and simply would not stop."


The writing in the book is fierce which successfully nailed the target of weak police and malign politics of current time. It also genuinely portrayed the India society as a whole. This book is neither for faint-hearted nor for children for sure. I felt having a censor-board in place for books also after reading this book. Overall, the book is must read.

However it was good to read two great books back to back. Midnight's Children by Salman Rushdie followed by The Story of My Assassins by Tarun J. Tejpal. I wish the luck will not disperse me in hurry.

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails